Message here

शिक्षा की जगह ओछी राजनीति का अखाड़ा बनता शिक्षा का मंदिर जेएनयू

(हस्तक्षेप / दीपक कुमार त्यागी)
NHPC Display

जेएनयू कैंपस में नकाबपोश गुंडों के द्वारा जिस तरह से बेखौफ होकर प्रोफेसर व छात्रों से मारपीट करके कैंपस में तोडफ़ोड़ की गयी है, वह हालात जेएनयू की छवि के लिए चिंताजनक हैं। विश्वस्तरीय विद्वानों को तैयार करने वाला शिक्षा का प्रसिद्ध मंदिर जेएनयू जिस तरह से हाल के वर्षों मैं आयेदिन ओछी राजनीति की प्रयोगशाला बन रहा है, वह जेएनयू के छात्रों के उज्जवल भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक संदेश है। जिस तरह से विचारधारा की आड़ में अपना वर्चस्व साबित करने के लिए कुछ अराजक तत्वों के द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में लाठी डंडे, हथियारों से लैस होकर छात्रों पर जानलेवा हमला किया गया है और कैंपस में तोडफ़ोड़ की गयी है वह बेहद शर्मनाक है। इस घटना ने हमारे देश के विश्वविद्यालयों में बढ़ती ओछी राजनैतिक दखलंदाजी की पोलखोल कर रख दी है, देश के प्रतिष्ठित शिक्षा के मंदिरों की हालात को भी सभी देशवासियों के सामने रख दिया है। विश्वविद्यालय परिसरों में आयेदिन होने वाली इस तरह के झगड़ों की घटनाओं ने हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था व उसको संभालने वाले शासन-प्रशासन के तंत्र की कार्यशैली पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। देश के नीतिनिर्माताओं व आम देशवासियों के लिए सोचने वाली बात यह है कि चंद लोगों की ओछी राजनीति के स्वार्थ को पूरा करने के लिए, देश के शिक्षा के मंदिर स्कूल, कॉलेज व विश्विद्यालयों का राजनीतिकरण कहां तक उचित है, क्या उनको राजनीति का अखाड़ा बनाना ठीक है, क्या यह देशहित में सही कदम है। जेएनयू की इस घटना के बाद इस पर हम सभी देशवासियों को निष्पक्ष रूप से व शांत मन से विचार करना चाहिए। जिस शिक्षा के मंदिर जेएनयू में मेहनत की भट्टी में तपाकर छात्रों को तराश कर योग्य इंसान बनाने का कार्य किया जाता था। आज वहाँ कुछ राजनेताओं के निजी एजंडे को पूरा करने के लिए कुछ छात्रों का जमकर राजनीति के लिए इस्तेमाल हो रहा है। जिससे इस प्रतिष्ठित संस्थान की छवि को देश ही नहीं विदेशों में भी बट्टा लग रहा है, लेकिन उसके बाद भी हमारा सिस्टम कुम्भकर्णी नींद में सोया हुआ है।

Gail banner

जिस जेएनयू से निकलने वाले छात्र आज भी देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन होकर देश के शासन-प्रशासन की व्यवस्था को चला रहे हैं, वहीं जेएनयू आज उन्हीं लोगों की उपेक्षा का शिकार क्यों हो रहा है। केंद्र सरकार के पदों पर आसीन लोगों पर निगाह डाले, तो आज भी हम पाते हैं कि मोदी सरकार के सबसे महत्वपूर्ण पदों पर जेएनयू से पढ़े-लिखे लोग ही विराजमान हैं। यहां तक की देश के वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी उठाने वाली मंत्री निर्मला सीतारमन भी जेएनयू से शिक्षा प्राप्त हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष के शीर्ष पदों पर आसीन कुछ राजनेता भी जेएनयू से शिक्षित हैं। फिर भी जेएनयू के गतिरोध को खत्म करके दौबारा शिक्षा की पटरी पर लाने के लिए कोई कारगर ठोस पहल क्यों नहीं हो रही है यह स्थिति बेहद चिंतनीय है।

अगर हम देश के अन्य क्षेत्रों की बात करे तो देश के निजी क्षेत्र के शीर्षस्थ पदों पर, शिक्षण के क्षेत्र में और इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में तो जेएनयू से पढ़े लोगों की भरमार है। फिर भी जेएनयू की हालात दिनप्रतिदिन शिक्षा की जगह अन्य गतिविधियों पर केंद्रित क्यों होती जा रही है, विश्वविद्यालय प्रशासन इस हाल पर कबुतर की तरह आँखों को बंद करके क्यों बैठा हुआ हैं वह यह क्यों नहीं सोचता की परिस्थितियों से आँखें फेरने से मौजूदा संकट का समाधान नहीं निकल सकता उसके लिए धरातल पर काम करना होगा। सरकार से जुड़े बहुत सारे लोग जगह-जगह अपने बयानों में कहते हैं कि जेएनयू राष्ट्र विरोधी लोगों का गढ़ बन गया है, उनका मानना है कि जेएनयू के छात्र देश और समाज को तोड़ने में लगे हुए है, तो भाई आप सत्ता में फिर आप कोई ठोस कार्यवाही क्यों नहीं करते हो, सार्वजनिक रूप से एक प्रतिष्ठित संस्थान की छवि खराब करने की जगह इस शिक्षा के मंदिर को बचाने के लिए धरातल पर पहल क्यों नहीं करते हो। देश में हाल के दिनों में जिस तरह अलग-अलग विश्वविद्यालयों में बवाल कटा है, उन हालातों को देखकर लगता है कि अब देश में वह समय आ गया है जब केंद्र व राज्य सरकारों को यह तय करना होगा कि उनको शिक्षा के मंदिरों को चंद लोगों व छात्रों की ओछी राजनीति का अखाड़ा बनने देना है या फिर पढ़ने लिखने आने वाले अधिकांश छात्रों की पढ़ाई का केंद्र बनाना है। क्योंकि आजकल देश के विश्वविद्यालयों में जिस तरह की राजनीति दिखाई पड़ती है, उससे लोगों के दिमाग में शिक्षा के इन मंदिरों की नकारात्मक तस्वीर उभरती है। जिन विश्वविद्यालयों में कभी छात्र उच्च गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का पाठ पढ़ते थे, आज वहां शिक्षा का बहुत बुरा हाल है, जहां कभी छात्र आपसी चर्चाओं में शिक्षा, रोजमर्रा के लोक हित के व्यवहारिक ज्ञान व तथ्यों पर आधारित वैचारिक राजनीति की दीक्षा लेते थे, आज वहां शिक्षा दिक्षा का स्तर बहुत तेजी से गिरा है। अधिकांश छात्र नेता छात्रों के हितों की बात करने की जगह स्वयं का स्वार्थ पूरा करने के लिए चंद राजनेताओं के हाथों की कठपुतली बन कर रह गये हैं। जो स्थिति शिक्षा के मंदिरों के लिए व छात्रों के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

error: Content is protected !!