(हस्तक्षेप / दीपक कुमार त्यागी)आजाद भारत में हम सबका पेट भरने वाले अन्नदाता को आयेदिन अपने अधिकारों और हक को हासिल करने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। लेकिन देश की सरकारें है कि वो अपनी चतुर चाणक्य नीति से हर बार इन किसानों को आश्वासन देकर समझा-बुझाकर सबका पेट भरने के उद्देश्य से अन्न उगाने के लिए वापस खेतों में काम करने के लिए भेज देती है। देश में सरकार चाहें कोई भी हो, लेकिन अपने अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्षरत किसानों की झोली हमेशा खाली रह जाती है। आज अन्नदाता किसानों के हालात बेहद सोचनीय हैं, स्थिति यह हो गयी है कि एक बड़े काश्तकार को भी अपने परिवार के लालनपालन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, जो स्थिति देशहित में ठीक नहीं हैं। किसानों के इस हाल के लिए किसी भी एक राजनैतिक दल की सरकार को ज़िम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा। उनकी बदहाली के लिए पिछले 72 सालों में किसानों की वोट से देश में सत्ता सुख का आनंद लेने वाले सभी छोटे-बड़े राजनैतिक दल जिम्मेदार हैं। क्योंकि इन सभी की गलत नीतियों के चलते ही आज किसानों की स्थिति यह है कि भले-चंगे मजबूत किसानों को सरकार व सिस्टम ने कमजोर, मजबूर व बीमार बना दिया है। जिसमें रही सही कसर हाल के वर्षों में सत्ता पर आसीन रही राजनैतिक दलों की सरकारों ने पूरी कर दी है। जिनकी गलत नीतियों व हठधर्मी रवैये ने उन परेशान किसानों को सड़क पर आने के लिए मजबूर कर दिया है। जहां अब वो कृषि क्षेत्र की लाइलाज हो चुकी बिमारियों के समाधान की उम्मीद में बैठे है। किसानों में बढ़ते आक्रोश के चलते अब देश में स्थिति यह हो गयी है कि किसानों को आयेदिन अपनी लंबे समय से लंबित मांगों के समाधान को लेकर ना चाहकर भी सड़कों पर उतर आने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। आज मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो किसानों की दुश्वारियों को कम करके उनके आर्थिक स्वास्थ्य को जल्द से जल्द ठीक करें। सरकार को समझना होगा भारत एक कृषि प्रधान देश है और हमारा अन्नदाता किसान देश की मजबूत नींव हैं, अगर सरकार किसानों को खुशहाल जीवन जीने का माहौल प्रदान करती है तो देश भी खुशहाल रहेगा। लेकिन वो इसी तरह से गरीबी, कर्ज, फसल खराब होने पर उचित मुआवजा ना मिलने व फसल के उचित मूल्य ना मिलने से परेशान होकर इसी तरह आत्महत्या करता रहा तो इस स्थिति में देश व देशवासियों का खुशहाल रहना संभव नहीं है। किसानों के हालात में अगर जल्द सुधार नहीं हुआ तो वो दिन दूर नहीं है जब बेहद कठिन परिस्थिति, कड़े परिश्रम और अनिश्चितता से भरे कृषि क्षेत्र में आने वाले समय में खेती के कार्य से लोग बहुत तेजी से पलायन करने लगेंगे।
किसानों के दर्द को समझने के लिए कृषि क्षेत्र से जुड़े कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो समझ आता है कि सरकार की उपेक्षा के शिकार कृषि क्षेत्र से देश की आधी से अधिक श्रमशक्ति 53 प्रतिशत लोग अपनी रोजीरोटी आजीविका चलाते हैं। इन लोगों में वो सब शामिल है जो किसी ना किसी रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। वहीं देश के आर्थिक विकास के पैमाने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की बात करें तो देश की सरकारों के कृषि क्षेत्र के प्रति उदासीन रवैये के चलते उसमें भी कृषि क्षेत्र का योगदान बहुत कम हुआ है। यह वर्ष 1950-1951 में 54 प्रतिशत था जो अब गिरकर मात्र लगभग 15 प्रतिशत के आसपास रह गया है। वहीं विगत कुछ वर्षों में हुई किसानों की आत्महत्या पर “राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो” (एनसीआरबी) के आंकड़ों की बात करें तो भारत में 1995 से 2014 के बीच किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा तीन लाख पार कर चुका था। वहीं पिछले कुछ वर्षों में भारत में किसानों की आत्महत्या के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है। जो हालात देश के नीतिनिर्माताओं व भाग्यविधाताओं के साथ-साथ आमजनमानस के लिए भी बहुत चिंताजनक व सोचनीय हैं। लेकिन आजतक किसी भी सरकार ने किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार कारकों व हालतों का स्थाई समाधान करने की ठोस कारगर पहल धरातल पर नहीं की है। इस ज्वंलत समस्या पर सरकार तत्कालिक कदम उठाकर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर लेती है। आजकल तो देश के भाग्यविधाताओं ने किसानों की होने वाली आत्महत्याओं के आंकड़ों को ही छिपाना शुरू कर दिया है। दुर्भाग्य की बात यह हैं कि पिछले कई वर्षों से किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा आमजनमानस के लिए उपलब्ध नहीं है। लेकिन पिछले वर्षों के औसत के आधार पर कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में देश में किसान आत्महत्याओं का यह आंकड़ा लगभग 4 लाख के आसपास पहुंच गया होगा। लेकिन फिर भी देश में किसानों की उपेक्षा लगातार जारी है।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश में अन्नदाताओं की आत्महत्याओं के पीछे सबसे बड़ा मुख्य कारण साहुकार व बैंकों के ऋण की समय से अदायगी न कर पाना है। क्योंकि किसान व्याज के चलते कर्ज में भारी वृद्धि हो जाने से समय पर कर्ज नहीं चुका पाता है, इसके लिए फसल उत्पादन लागत में भारी वृद्धि के बाद भी फसल उत्पादन में कमी, फसल का उचित मूल्य नहीं मिलना तथा मौसम की बेरुखी के चलते लगातार फसलों का बर्बाद होना, बर्बाद फसलों का उचित मुआवजा नहीं मिल पाना आदि हालात जिम्मेदार है। हमारे देश में आजकल किसानों के द्वारा नगदी फसलें उगाने का चलन ज्यादा चल गया है, जिनकी लागत बहुत अधिक होती है। जिसके चलते किसानों को बहुत पैसे की आवश्यकता होती है और देश में आज भी स्थिति यह है कि बैंकों व अन्य संस्थाओं से किसानों को उनकी जरूरत के मुताबिक कर्ज आसानी से नहीं मिल पाता है। जिसके चलते किसान 24 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेकर अपनी खेती की जरूरतों को पूरा करता है, लेकिन फसल तैयार होने के बाद गलत नीतियों के चलते उचित मूल्य ना मिल पाने, फसल बर्बाद व उत्पादन कम होने के चलते किसानों की कर्ज अदा करने की स्थिति नहीं रह पाती है, जिसके चलते वो कर्ज के इस खतरनाक दलदल में बुरी तरह धंसता चला जाता हैं और जब उसकी सहने की क्षमता जवाब दे जाती हैं तो वो जिंदगी से खफा हो आत्महत्या करने जैसा कदम उठा कर असमय मौत को गले लगा लेता है। हालांकि भारत में किसान एक ऐसी बहादुर कौम जो हर तरह की विकट से विकट परिस्थितियों में भी बिना हिम्मत हारे उनका डट कर मुकाबला करने का माद्दा रखता है, लेकिन फिर भी कुछ लोग जीवन संघर्ष के इस दौर में अपने परिवारों के कष्टों को देखकर टूट जाते हैं और वो आत्महत्या कर बैठते हैं। देश में बेहद कठिन हालात में काम करने वाले किसानों की समस्याओं की उपेक्षा सभी सरकारों के द्वारा जारी है, किसानों की उपेक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण हैं कि देश में उद्योगपतियों ने मंदी की हालात से उत्पन्न समस्या से केंद्र सरकार को अवगत कराया, सरकार ने विकट हालात को तुरंत समझते हुए भारी मंदी की चपेट में आये उधोगों को उबारने के लिए तत्काल कॉरपोरेट टैक्स को घटाकर उनको राहत देने का काम किया, जिससे देश के कॉरपोरेट सेक्टर को 1.45 लाख करोड़ का लाभ आने वाले समय में होगा। जबकि हमारा अन्नदाता किसान अपनी समस्याओं से परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है, फिर भी सरकार किसानों की लंबे समय से लंबित चली आ रही विभिन्न मांगों पर समय रहते सुनवाई करके उनका स्थाई हल नहीं करती है। यहां गौरतलब है कि सरकार के द्वारा देश के उधोगों को यह राहत ऐसे समय में दी गई थी, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हजारों अन्नदाता किसान अपनी लंबे समय से लंबित मांगों को पूरा करवाने के लिए पैदल मार्च करके दिल्ली पहुंचे थे। फिर भी सरकार ने किसानों की झोली को खाली ही रखा, केंद्र सरकार ने पूर्व की भांति चाणक्य नीति का इस्तेमाल करते हुए, अन्नदाता को मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन देकर चतुराई से वापस घर भेज दिया। अब देखना होगा कि सरकार का किसानों की मांगों पर विचार आखिर कब तक चलता है और कब तक किसानों की मांगों पर अमल होता है। देश के अन्नदाताओं के आंदोलन के साथ इसी तरह का सफलता पूर्वक प्रयास मोदी सरकार में पहले भी हो चुका है और समय-समय पर पहले की सरकारें भी इस प्रकार के हथकंडे को अपना कर किसानों के आक्रोश को शांत करती रही हैं। देश में सरकारें बदलती रही है लेकिन किसानों की समस्याओं का पूर्ण स्थाई समाधान फिर भी अभी तक नहीं हो पाया है।
जबकि किसानों की मुख्य मांगे वही वर्षों पुरानी है, फसलों का उचित मूल्य, मौसम की मार के चलते बर्बाद फसलों का उचित मुआवजा, सरकार द्वारा तय रेट पर फसलों की खरीद सुनिश्चित करना, गन्ना का भुगतान समय पर हो, किसानों का कर्ज माफ हो, किसानों को बिजली पानी डीजल सस्ता दिया जाए, किसानों के सुरक्षित जीवन के लिए पेंशन योजना बनायी जाये, किसानों की हालात को सुधारने के लिए देश में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को जल्द से जल्द लागू किया जाये आदि हैं। किसान का आरोप है कि हम बेहद परेशान हैं लेकिन उसके बाद भी कोई भी सरकार हमारी मांगों पर कभी भी ध्यान से सहानुभूतिपूर्वक विचार करके हमारी समस्याओं का ठोस स्थाई समाधान नहीं निकालती है। किसानों का मानना हैं कि देश में चाहे सरकार कोई भी हो वो सड़क पर आये किसानों के दुखदर्द को समझने के लिए तैयार नहीं है। देश में लंबे समय से किसान आंदोलनरत होकर सड़कों पर है लेकिन कोई भी सरकार किसानों की समस्या जान कर उनका स्थाई समाधान करने के लिए तैयार नहीं है। आज किसानों की स्थिति पर मैं देश के नीतिनिर्माताओं से अनुरोध करना चाहता हूँ कि
“ओ देश के भाग्यविधाता,
ना करों अन्नदाता पर अत्याचार,
अन्न उगा कर सबका पेट भरने वाले,
किसानों की जल्द सुनों पुकार,
ना करों उस पर अब और प्रहार,
दे दो उसको खुशहाली से
जीवन जीने के अधिकार।।”
सबसे बड़ी अफसोस की बात यह हैं कि सबका पेट भरने वाला अन्नदाता किसान खुद खाली पेट अपने ही द्वारा चुनी सरकार से अपने अधिकारों की लड़ाई बहुत लंबे समय से लड़ता आ रहा है। लेकिन उसकी आवाज़ उठाने के सबसे सशक्त माध्यम भारतीय मीडिया के अधिकांश प्रभावशाली चहरे उस पर ना जाने क्यों चुप्पी लगाये बेठे हैं। उनमें से आधिकांश अपने प्राइम टाइम में किसानों की समस्याओं व उनकी बेहाली पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन यह भी सच्चाई है कि आप जब भी टीवी खोलेंगे तो प्राइम टाइम में हिंदू-मुसलमान, अबु बकर अल बगदादी, तानाशाह किम जोंग, आईएसआईएस, पाकिस्तान आदि के टीआरपी हासिल करने वाले मुद्दों पर बेहद गम्भीरतापूर्वक डिवेट चल रही होती है। लेकिन किसी के भी पास सबका पेट भरने वाले देश के अन्नदाता किसान के लिए समय नहीं है।
हालांकि समय-समय पर किसानों के लिए विभिन्न सरकारों के द्वारा कई कल्याणकारी योजनाएं भी चलाई गयी हैं। मोदी सरकार के द्वारा भी किसान हित के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है, लेकिन उन योजनाओं का धरातल पर कोई खास स्थाई असर होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। इसलिए अब मोदी सरकार को जरूरत है कि किसानों की ज्वंलत समस्या के बुनियादी कारणों पर तत्काल गौर कर, उन्हें अच्छी तरह से समझा जाए और फिर सरकार के द्वारा इन समस्याओं के समाधान की दिशा में ठोस प्रयास किये जाए। वैसे भी अब केंद्र में दोबारा चुनकर आयी मोदी सरकार से देशवासियों को बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं, सरकार को भी जनता की इस आशा पर खरा उतरने के लिए जनभावनाओं के अनरूप समय रहते काम करना होगा। इसलिए सरकार को भी यह जल्दी ही समझ जाना चाहिए कि किसान देश की नींव है उसको मजबूत करें बिना देश का मजबूत होना संभव नहीं हैं। इसलिए देश की नींव किसानों की जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए सरकार को फाईलों से योजनाओं को जल्द से जल्द निकालकर धरातल पर लाकर अमलीजामा पहना कर, समस्याओं का स्थाई कारगर समाधान करना होगा तब ही देश में खुशहाली व विकास का रामराज्य संभव है।