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बाजारीकरण के दौर में धर्म-संस्कृति पर हावी होता बाजारवाद

(हस्तक्षेप / दीपक कुमार त्यागी)आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में बाजारवाद और इसकी ताकतवर व्यवस्था के प्रभाव से समाज का कोई भी वर्ग अछूता नहीं रहा है। हालात यह हो गये हैं कि सनातन धर्म की संस्कृति व त्यौहारों की बेहद गौरवशाली परम्पराएं भी बाजारवाद के आसान शिकार बन गये हैं। देश में स्थिति ऐसी हो गयी है कि अब तो हम लोग किसी दूसरी संस्कृति व विचारों को भी बिना सोचे समझे बाजार के जादू के चलते अपना रहे हैं। बाजारवाद ने सभी सीमाओं को तोडऩे का काम किया हैं। लेकिन विचारयोग्य बात यह है कि देश में बन गये बाजारवाद और अर्थवाद की संस्कृति के इस संक्रमण काल में भी भारतीय संस्कृति व मूल्यों के प्रति समर्पित एवं संवेदनशील बने रहना बहुत बड़ी चुनौती की बात हो गयी है। हालांकि यह बाजारवाद की मेहरबानी है जिसने ने 21वीं सदीं के भारत में ऐसे हजारों-लाखों युवा तैयार कर दिए हैं, जो इस बाजारवाद से रोजाना लाखों-करोड़ों कमा रहे है और उसी कमाई पर दिये गये टैक्स के पैसा खर्च कर राष्ट्र विकास के नित नये आयाम स्थापित कर रहा हैं।इस बाजारवाद व पाश्चात्य मानसिकता के प्रभाव वाले दौर में भी हमकों अपनी गौरवशाली भारतीय संस्कृति को बचायें रखना है। वैसे आज देश में अलग तरह का राष्ट्रवाद चरम पर हैं जिसका आधार बहुत ही तेजी से दिनप्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है। लेकिन उसके बाद भी शहरी परिवेश में सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य अंग्रेजी शैली कुछ ज्यादा हावी हुई है, लेकिन अच्छी बात यह है कि देश के ग्रामीण परिवेश वाले क्षेत्रों में अब भी प्राचीन भारतीय संस्कृति का बोलबाला है उसकी नींव मजबूत है। लेकिन बाजारवाद के प्रभाव से वो भी अछूती नहीं रही हैं।आज बाजारवाद के चलते अपने ही देश में अपनी भाषा हिन्दी, अपना साहित्य और अपनी धर्म-संस्कृति के प्रति आत्म गौरव का भाव राष्ट्रवाद के इस दौर में भी पहले वाला नहीं बचा है। हकीकत में धरातल पर स्थिति यह है कि पूरे देश में पाश्चात्य संस्कृति के बाजारवाद को आधुनिक व विकसित होने की पहचान के रूप में स्वीकार करने का माहौल बन गया है। बाजारीकरण, वैश्वीकरण व नई तकनीकी की ताकत को देखकर युवाओं में उसके प्रति आकर्षित होने की भगदड़ मची हुई है। लेकिन उस भगदड़ में भी हमकों ध्यान रखना होगा कि हम सामंजस्य बनाकर अपनी जडों से मजबूती से जुड़े रहें और इन जडों को मजबूत रखने के लिए हम सभी को समयानुसार ठोस कारगर प्रयास करते रहना होगा। सूचना प्रौद्योगिकी के ताकतवर समय में हमकों अपने बच्चों को अपने गौरवशाली शानदार अतीत से जोड़कर रखना होगा। क्योंकि इंसान स्वयं इतनी जल्दी नहीं बदलता उसको उसकी महत्वाकांक्षा और परिस्थितियां जल्दी बदलतीं हैं। आज देश में बाजारवाद की अंधी दौड़ में हर वस्तु बिक्री के लिए उपलब्ध है हर किसी पर अजीब सा रेट का बोर्ड लगा है, जो सोचनीय स्थिति हैं। इस हालात को बदलना होगा, हर चीज का मोल नहीं लगाया जा सकता यह हम सभी को समझना होगा।बाजारवाद के चलते मार्केटिंग के योद्धाओं ने धीरे-धीरे हमारी पसंद को बदल कर अपने हिसाब से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। जिसके चलते आजकल हमारे बड़े-बुजुर्ग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि आने वाले समय में ना जाने धर्म के रीति-रिवाज, धार्मिक कर्मकांड, अनुष्ठान, पूजापाठ आदि में नई पीढ़ी को कोई दिलचस्पी होगी या नहीं है और जिस तरह से देश में बाजारवाद के चलते पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है, वह सोचनीय है। जिसके चलते आज हमारा समाज दिशाहीन हो रहा है, देश के कुछ युवाओं का तो अपने ही गौरवशाली अतीत के प्रति कोई सम्मान नहीं है यह स्थिति बेहद सोचनीय व चिंताजनक है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ :- साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥

उसी प्रकार सभी को धर्म की रक्षा करते हूँ अनुशासित ढंग से लोगों का सहयोग करते हूँ प्रेम व भाईचारे से जीवन जीना चाहिए।
वैसे मेरा मानना हैं कि भारतीय संस्कृति या कोई भी संस्कृति जिसके आधार में वास्तविक रूप से धर्म हैं, वह कभी बाजारवाद या किसी अन्य प्रकार से नष्ट नहीं हो सकती। लेकिन उस पर थोडा बहुत प्रभाव आ सकता है उसका वास्तविक रंग-रूप बदल सकता हैं, उसे पालन करने वालों का तरीका और शैली बदल सकती है, प्राचीन सूत्रों के अर्थ की व्याख्याएं नये ढंग से की जा सकती हैं। लेकिन अगर हमारी जिंदगी में सच में धर्म-संस्कृति की ताकतवर बुनियाद है, तो वह समय के पार है उसको कोई बाजारवाद या अन्य कोई हिला नहीं सकता हैं। नयी पीढ़ियां आती हैं, पुरानी पीढियां जाती हैं, लेकिन धर्म-संस्कृति स्थिर रह कर सदा बनी रहती है। वक्त के थपेड़े, बाजारवाद की आंधियों की धूल उसे प्रभावित नहीं कर सकती हैं। भागवत गीता में कहा है

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
भावार्थ :- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥

यह भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा कहा गया कटु सत्य हैं। जिसको कोई भी बाजारवाद या अन्य संस्कृति बदल या प्रभावित नहीं कर सकती हैं।

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