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भाजपा सबसे मुश्‍किल दौर से गुजर रही है

 (के. पी. मलिक)महाराष्ट्र में लगभग महीने भर चले नाटक के बाद शनिवार को आखिरकार सरकार का गठन हो गया। देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार उपमुख्यमंत्री बन गये।परन्तु वेंटिलेटर पर ये सरकार कब तक चलेगी, यह तो समय ही बतायेगा। अजित पवार ने महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद कहा था कि महाराष्ट्र में किसानों के मुद्दों सहित कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था, इसलिए हमने भाजपा के साथ एक स्थिर सरकार बनाने का फैसला किया। आप सोच सकते हैं कि इनको किसानों की कितनी चिंता है। डिप्टी सीएम बनने की यह कुर्बानी इन्होंने किसानों के लिए दी है। वो बात अलग है कि पूरे भारत में सबसे अधिक आत्महत्याएं महाराष्ट्र के किसान करते हैं।महाराष्ट्र की राजनीति में अचानक बदले इस घटनाक्रम को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या अजित पवार ने एनसीपी चीफ शरद पवार की सहमति ली थी? खबरों के मुताबिक, एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र सरकार के गठन के लिए चर्चा का हिस्सा थे, उन्होंने अजित पवार को अपनी सहमति दी थी। अजित पवार पार्टी के संसदीय बोर्ड के नेता हैं। जाहिर है पार्टी का कोई भी फैसला शरद पवार की सहमति के बिना नहीं लिया जा सकता। एनसीपी और बीजेडी के सांसद कभी वेल में नहीं आते हैं और ऐसा नियम उन्होंने खुद के लिए बनाया है। यहां तक कि भाजपा को भी एनसीपी और बीजेडी से यह सीखना चाहिए। उपरोक्त बाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन राज्यसभा में कही। भाजपा से एक-एक कर सहयोगियों के छिटकने के

बीच प्रधानमंत्री की इन बातों के गहरे निहितार्थ हैं। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में आम धारणा है कि उनकी हर बात के कई मायने मतलब होते हैं, तो क्या उनकी इस बात का यह अर्थ है कि वे एनसीपी व बीजेडी के जरिए भाजपा के सहयोगियों की संख्या में इजाफा करने की पटकथा लिख रहे हैं? इन अटकलों को हवा इससे मिल रही है कि महाराष्ट्र व हरियाणा में थोड़ी कम सीटें क्या मिली, सहयोगी दल भाजपा को आंखें दिखाने लगे। हरियाणा में तो जैसे-तैसे सरकार बन गई लेकिन महाराष्ट्र में सहयोगी दल शिवसेना की अड़ंगेबाजी से न केवल परोसी हुई सत्ता की थाली दूर छिटक गई बल्कि भाजपा और शिवसेना नदी के दो किनारे बन गये। हालांकि कुछ लोग दबी जुबान में यह भी कह रहे हैं कि शरद पवार के जाल में फंसकर शिवसेना कहीं की नही रही, और मुख्यमंत्री पद की हसरतें तो धरी की धरी रह गई। शिवसेना यह सोचकर परेशान हैं कि एनसीपी के अजित पवार आखिरी तक उनके साथ रहकर पलटी मार गये। और उन्होंने शिव सेना को कहीं का नही छोडा राज्य में अचानक बड़ा उलटफेर होने के बाद जहां सियासी गलियारों में तमाम तरह की चर्चाएं चल रही हैं। इस बीच पीएम मोदी ने ट्वीट कर कहा, ”महाराष्ट्र के सीएम और डिप्टी सीएम के रूप में शपथ लेने पर देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार को बधाई दी।” आपको बता दें कि शनिवार सुबह तक महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की बात कही जा रही थी। तीनों दल उद्धव ठाकरे को सीएम बनाने पर सहमत भी हो गए थे और चर्चा थी कि शनिवार को औपचारिक तौर पर वे राज्यपाल से मिलकर दावा पेश करेंगे, लेकिन इसी बीच राज्य में सबसे बड़ा उलटफेर हो गया।

तो इस संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि राजनीति को संभावनाओं का खेल यूं ही नहीं कहा जा सकता। यहां पासा पलटते देर नहीं लगती। जो हुआ यह दूर की कौड़ी लग रहा था, लेकिन अगर सुप्रिया सुले केंद्रीय मंत्री के रूप में शपथ ले लें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का अनुभव उसमें शामिल रहे दलों के लिए अच्छा नहीं रहा है। चाहे वह तेलगुदेशम के चंद्रबाबू नायडू हों या राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा या सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर। इन सबकी हालत आधा छोड़ पूरा को धावे, आधी रहे न पूरा पावे वाली है। यानी खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे जैसी स्थिति हो गई। इन सभी को यह गुमान हो गया था कि 2014 और उसके बाद लगातार हुई भाजपा की जीत इन्हीं के कारण हुई। इसी अति आत्मविश्वास ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा।

बहरहाल, जो भी हो लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस वक्त भाजपा सबसे मुश्‍किल दौर से गुजर रही है। एक तरफ मन मुताबिक नतीजे न आने के बाद जैसे तैसे हरियाणा और महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनानी पड़ी। रही सही कसर झारखंड ने पूरी कर दी है। राज्‍य में पांच साल तक सरकार में शामिल होकर सत्ता की मलाई चाटने के बाद सुदेश महतो की पार्टी आजसू ने भाजपा से पल्‍ला झाड़ लिया है। यही नहीं, एनडीए के सहयोगी दल नीतीश कुमार की जेडीयू और रामविलास पासवान की जनशक्ति पार्टी ने झारखंड में अपने उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया है। चिराग पासवान के मुताबिक लोक जनशक्‍ति पार्टी झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से 50 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जदयू ने तो सभी 81 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया है। उल्लेखनीय है कि झारखंड में 2012 तक हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा भाजपा की सहयोगी पार्टी थी।

लोकसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करने वाली भाजपा मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की तमाम उपलब्धियों जैसे तीन तलाक बिल व जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खात्मे आदि का लाभ विधानसभा चुनावों में नहीं उठा पाई। नतीजा, उसके सहयोगियों को उस पर हाबी होने का मौका मिल गया। महाराष्ट्र और झारखंड की वर्तमान खींचातानी इसी की बानगी है। आजसू व शिवसेना ने हालांकि स्वेच्छा से ही भाजपानीत एनडीए से दूरी बनाई है लेकिन एनडीए की बैठक में न बुलाये जाने को लेकर शिवसेना भाजपा पर आक्रामक हो गई। भाजपा पर मनमानी राजनीति करने और अहंकारी होने का आरोप लगाते हुए अपने मुखपत्र सामना के जरिए शिवसेना ने पूछा कि उसे एनडीए से निकालने वाली भाजपा कौन होती है? घटक दलों का कहना है कि अगर आपको लगता है कि शिवसेना एनडीए के खिलाफ हो गई है, तो आप इसे एनडीए की बैठकों में क्यों नहीं उठाते? क्या जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी के साथ गठबंधन करने से पहले बीजेपी ने एनडीए की मंजूरी ली थी? क्या बिहार में नीतीश कुमार के साथ जोड़ी बनाने से पहले एनडीए के दलों से पूछा गया था? कह सकते हैं कि यह अहंकारी और मनमानी राजनीति के अंत की शुरुआत है।

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