-( के. पी. मलिक)
कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला हिंदुस्तान आज, आजादी के सत्तर सालों के बाद भी किसी न किसी समस्या से लड़ रहा है। आज भारत के सामने जो समस्याएँ फन फैलाए खड़ी हैं, उनमे सबसे महत्वपूर्ण समस्या है बेरोजगारी। लोगों के पास हाथ है, पर काम नहीं। प्रशिक्षण है, पर नौकरी नहीं। योजनाएँ और उत्साह है, पर अवसर नहीं है। बेरोजगारी समाज के लिए एक ‘अभिशाप’ बनी हुई है।देश में बेरोजगार युवाओं के महानगरों और बड़े शहरों में पलायन के कई कारण मौजूद हैं। लेकिन इसमें सबसे प्रमुख कारण अशिक्षा व बेरोजगारी है। गांवों में शिक्षा का संस्थागत ढांचा नहीं रहने के कारण, ग्रामीण शिक्षित नहीं हो पाते हैं। अशिक्षा उन्हें मजदूरी व अन्य काम करने को विवश करती है। ग्रामीण अच्छे व बुरे को नहीं समझ पाते हैं। उन्हें अपने पेट भरने के लिए काम की दरकार होती है।
ऐसे में गांवों के गरीब परिवारों को मजदूरी करनी पड़ती है। इन्हें गांव के नजदीक मजदूरी नहीं मिलने के कारण, ये महानगरों व बड़े शहरों में पलायन करते हैं। इसके अलावा शिक्षित ग्रामीणों को भी नौकरी नहीं मिल पाती है। उन्हें भी नौकरी के कारण बाहर के शहरों में पलायन करना पड़ता है। सरकार द्वारा भी स्थानीय स्तर पर नौकरी की सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाना। इस कारण भी गांवों से लोग महानगरों की ओर पलायन को विवश होते हैं।
देश में बढ़ती हुई जनसंख्या ने भी बेरोजगारी को विकराल समस्या के रुप में उत्पन्न किया है। अनियंत्रीत बेरोजगारी हमारी कृषि व्यवस्था, परम्परागत शिक्षा, अधूरे भूमि-सुधार, नकल वाले विकास की अवधारणा, हुनर-प्रशिक्षण का अभाव, लोक-लज्जा से काम करने में संकोच, सफेदपोश रोजगार के प्रति बढ़ता झुकाव जोखिम उठाने के क्षमता के आभाव के साथ जुड़ी हुई है। भारत में गरीबी, बेरोजगारी और व्यापक आकाल की समस्या तथा लापरवाह प्रशासन तथा देश की अर्थव्यवस्था के दाँव पेच में भारतीय गाँव एवं ग्रामीण इस कदर फस गया है। जहाँ से निकलने के रास्ते तो बहुत है, किन्तु उन रास्तो पर चलने वाला शासन व्यवस्था अपनी जरूरतों तक सिमटकर और ग्रामीण के हक पर अतिक्रमण कर मुह चिढाने के अतरिक्त कुछ करता नजर नहीं आता।
ग्रामीण बेरोजगारी के चलते गाँवों से शहरों की ओर हो रहे निरंतर पलायन के दुःख को कैसे बयान किया जाये? खेती से बेदखल हुए, ये सशक्त और सक्रिय युवक शहरों में अपने सपनों की जिंदगी पा पाते हैं? शायद तो छोड़िये यक़ीनन नहीं। बेरोज़गारी की ‘डायन’ गाँव के गाँव निगलती जा रही है। वहां बचे अधिकतर लोग शहरों से आने वाले ‘मनी ऑर्डर्स’ पर ही जिन्दा हैं। इससे उपजे भय और कुंठा को दीमक कहें या राख में छुपी आग अपनी ही तरह से और अपनी ही रफ़्तार से सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ती जा रही है। लगातार खेती की घटती जोत, घटते रोजगार और गांव के प्रति सामाजिक उदासीनता इसका प्रमुख कारण है।
देश के स्तर पर भी यह बड़ी समस्या है। किन्तु राजनीति ही खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने या भाषण देने वाले समाज में निश्चित रूप से यह बड़ी चिंता का विषय नहीं दिखता, तभी तो जिससे भी अपनी असहमति हो उस नेता के इस विषय पर कहे शब्दों को हम मज़ाक बनाकर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। ताज़ा उदाहरण प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री का वह बयान है कि उनकी सरकार ग्रामीण युवकों को गौ-प्रबंधन का प्रशिक्षण देगी। चूँकि उनकी पार्टी ने चुनावों में वायदा किया था कि चुनाव जीतने की स्थिति में वे गौ-रक्षा के उद्देश्य से युवकों को उस काम की दक्षता हेतु समुचित प्रशिक्षण देगी।ताकि उससे नए रोजगार निकल सकें। बस इतना कहा नहीं कि हल्ला मच गया कि अब तो सरकार ‘ढोर-चराने’ का प्रशिक्षण भी देगी। आपको याद होगा पिछले साल मुख्यमंत्री के उस बयान की भी काफी किरकिरी हुई थी जिसमें वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को गन्ने की फसल छोड़कर सब्जियां या अन्य फसलें उगाने की सलाह दे रहे थे। सबसे तेज और तीखा हमला तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हुआ था। जब एक चैनल पर साक्षात्कार में उन्होंने कह दिया था कि ‘पकौड़े-बनाना’ भी तो एक रोज़गार है। हालांकि वो बात अलग है कि हाल में हुए लोकसभा चुनाव में विपक्ष इन बातों को मुद्दा बनाने में असफ़ल रहा।
अगर बात की जाये कि हमारा समाज आखिर रोजगार या काम मानता किसे है? चूँकि काम के छोटे या बड़े होने की परिभाषाएं भी उसी ने गढ़ी हैं। इसलिए बेकारी का ‘दंश’ भी वही भोग रहा है। सारी मारा-मारी बाबूगिरी या संगठित क्षेत्र (ऑर्गनाइज़्ड सेक्टर) में काम पाने की है। जिसमें लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। रोजगार के आंकड़े कम हो रहे हैं। और शायद ये सबको नहीं मिल सकते। अध्ययनों और शोध से यह निकल कर आ चुका है कि अपने देश में न तो खेती में अब ज्यादा लोग खप सकते हैं। और न ही संगठित क्षेत्र में। इसलिए कामों को बिना छोटा-बड़ा समझे, बात आजीविका की होनी चाहिए। साथ ही आजीविका के साधनों से जुड़े कानूनों को सबसे पहले सबको जानना होगा और उन्हें मानवीय बनाना होगा।
भारत में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और सूरत आदि जैसे कई शहर हैं, जो सिंगापुर या हांगकांग से भी बड़े हैं। उनकी अर्थव्यवस्था भी उतनी ही बड़ी है। अपनी कुछ विशेषताओं के कारण वे अपने यहाँ आने वाले हर आदमी को अपने में समा लेने की क्षमता भी रखते हैं। अब तो सारी दुनिया ने मान लिया है कि अपनी जनसँख्या के कारण भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन चुका है। ’हिन्दुस्तान यूनिलीवर’ ने अधिकृत रूप से यह माना है कि भारत में शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में उपभोक्ता सामग्री की बिक्री का अनुपात अभी 60-40 का है जो बहुत जल्दी 50-50 होने जा ही रहा है। इसलिए जरूरी है कि हम बाज़ार को ही गाँवों में ले जाएँ। या महानगरों की तरह खुदरा बाज़ार से अपने युवकों को जोड़ें। निश्चित रूप से यह वहां नए रोजगार सृजित करने में सहायक सिद्ध होगा। जैसे भी पहुंची है पर बैंकिंग व्यवस्था ने गावों में पहुंचकर वहां रोजगार के क्षेत्र में एक योगदान जरूर दिया है। सेवा के हर उपक्रम ने चाहे वह स्वास्थ्य हो, शिक्षा हो या बीमा हो, इन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचकर रोजगार तो बनाये हैं। इसी तरह गाँव पहुंचकर बड़ा खुदरा बाज़ार भी अपना योगदान दे सकता है। वस्तुओं का व्यापार संसार का सबसे पुराना रोजगार है। इसी के तहत ‘फेरीवाले’ या सड़क पर व्यापार करने वाले लोग सारे संघर्षों के बावजूद अपना जीवन चला ही लेते हैं।
आप यह जानकर हैरान हो सकते कि मुम्बई में दो लाख से ज्यादा लोग लगभग 1600 करोड़ रुपयों का व्यापार सड़कों पर ही करते हैं। इतने ही लोग कोलकाता, दिल्ली या अहमदाबाद में इतने ही रुपयों का व्यापार करते हैं। यह भी जान लीजिये कि इस आजीविका से देश के लगभग 18 करोड़ परिवार पलते हैं। यही नहीं यह आजीविका अपनी क्षमता के अनुसार रोज बड़ी संख्या में लोगों को अपने में समाती ही जा रही है। किन्तु क्या हमारा ‘कल्याणकारी राज्य-तंत्र’ सौ प्रतिशत असुरक्षा में जी रहे इन लोगों के लिए कुछ कर रहा है? नगर नियोजन में प्राथमिकता के आधार पर इनका ध्यान रखा जा रहा है? अभिजात्य समाज के हितों के लिए ही क़ानून बनाने वाले अंग्रेज़ों ने एक क़ानून बनाया था। उसमें सड़क पर व्यापार करने वालों को यातायात में बाधा माना गया था। उस क़ानून को वैसा का वैसा “दि बॉम्बे प्रोविंशियल म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट,1949” के नाम से बनाकर हमारी सरकार ने भी इन फेरीवालों को बाधा मान लिया। अंग्रेजों के ही बनाये एक कानून को हू-बहू उठाकर हमने ‘दि बॉम्बे पोलिस एक्ट 1951‘ बनाकर सड़क पर होने वाले व्यापार को अपराध बना दिया। यही नहीं अंग्रेजों का बनाया हुआ ‘दि इंडियन रेलवेज़ एक्ट 1891‘ हमने आज भी ओढ़ रखा है। इसमें भी खुदरा व्यापार गैर-क़ानूनी है। इन्हीं की तर्ज़ पर सारे देश में सब जगह स्थानीय क़ानून हैं। इन सब क़ानूनों के तहत सड़क पर होने वाला व्यापार लोक जीवन में बाधक है। इसी मानसिकता से सभी जिम्मेदार लोग ग्रस्त हैं।
लेकिन भारत का सभ्य समाज फेरीवालों, ठेलेवालों, रेहड़ीवालों, खोमचे वालों या फुटपाथ पर बैठकर आजीविका कमाने वालों को अपने जैसा इंसान ही मानता है। इसलिए उसके बड़े प्रयासों के बाद इस व्यापार पर वर्ष 2004 में एक राष्ट्रीय नीति पर सहमति बनी थी, जो 2009 में एक बिल के रूप में विचारार्थ आई और 2014 में बाक़ायदा ‘दि स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ लाईवलीहुड एंड रेगुलेशन ऑफ़ स्ट्रीट वेंडिंग) एक्ट 2014 बना। अब आप ही पूछ देखिये किसी पुलिसवाले से कि उसको इस क़ानून के बारे में जानकारी है? जवाब मिलेगा नहीं।कानून पालन करवाने वाला कोई भी आदमी इसे अपनी संवेदनशीलता के साथ देखना ही नहीं चाहता। सब कुछ अंग्रेज़ों की मानसिकता से ही चल रहा है। यदि हम सचमुच अपनी बेरोजगारी से दुखी हैं। तो हमें आँखें खोलकर पूरी संवेदना के साथ इस खुदरा बाज़ार को देखना होगा। इसकी क्षमता पहचानकर इसकी रक्षा करनी होगी, और इसे छोटा काम समझना बंद करना होगा। दुनिया की बात छोड़िये,भारत के ही कई शहरों ने इस मामले में अनुकरणीय काम किये हैं। वहां यह व्यापार भी चलता है और यातायात में बाधा भी नहीं है। मणिपुर का इस मामले का कानून तो सामाजिक सुरक्षा व जन-सुविधाओं का श्रेष्ठ उदाहरण है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक भास्कर में राजनीतिक संपादक है)